स्वभावस्त्वियं काशी सुखविश्रामभूर्मम।
ये काश्यां नाम गृहन्ति येऽनुमोदन्त एव हि ।।
शंङ्कर पार्वती जी से कहते है कि हे देवी! स्वभावतः यह काशी मेरी सुख एवं विश्राम की भूमि है। जो काशी में नाम ग्रहण करते हैं तथा अनुमोदन करते है, वे मनुष्य धन्य है। भगवान शंङ्कर के प्राणियों के प्रति दया से युक्त वचन सुनकर भवानी शंङ्कर भगवान से प्रश्न करती हैं कि हे शिव ! मृत्युलोक में रहने वाले प्राणियों का कल्याण कैसे होगा? वे प्राणी जन्म-मृत्युरूपी भवसागर से कैसे मुक्त होंगे? तब भगवान् शंकर ने कहा कि हे भवानी! मृत्युलोक के प्राणियों का कल्याण कैसे होगा और इनको कैसे मुक्ति मिलेगी ? इस विषय में मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ। हे भवानी! मैं मृत्युलोक के सभी जीवधारियों और प्राणिमात्र को मुक्ति देने के लिए मुक्तिक्षेत्र का मार्ग खोलना चाहता हूँ। इस पर भवानी प्रसन्न होकर कहती हैं कि हे स्वामी! मृत्युलोक में आप कहाँ मुक्तिक्षेत्र खोलना चाहते हैं?
तदनन्तर भगवान विश्वनाथ कहते हैं कि हे भवानी! भारतवर्ष के मध्यभाग में उत्तरवाहिनी भागीरथी गंगा जी के परमपावन तट पर ‘काश्य’ नामक एक महानगरी है। उसी ‘काश्य’ नामक महानगरी में, मैं जन्म-मृत्युरुपी महान कष्ट में फँसे हुए प्राणियों को मुक्ति देने के लिए ‘मुक्तिक्षेत्र’ खोलूँगा। हे भवानी ! जैसे देवताओं के लिए कैलास है, वैसे ही ‘मृत्युलोक के प्राणियों को मोक्ष देने के लिए शिवलोक जैसी ‘काश्य’ (काशी) नामक मुक्तिक्षेत्र का निर्माण करता हूँ, यह कहकर विश्वनाथ जी ने एक ज्योतिर्मय देदीप्यमान शिव-ज्योतिर्लिंग को प्रकट किया। तदनन्तर भगवान् शिव हाथ में त्रिशूल लेकर कहने लगे कि हे त्रिशूल ! तुम काशी में जाओं और काशी के मध्य भाग में खड़े हो जाओं ।
तीनों लोक (त्रिकण्टक) के ऊपर प्रकाशमान दिव्य शिव-ज्योतिर्लिंग पंच क्रोशात्मक होकर काशी में सदा निवास करेगा। मैं भी काशी के पंचकोसात्मक ज्योतिर्लिंग में प्राणियों को मोक्ष देने के लिए सदा काशी वास करूँगा। इतना कहकर भगवान् शिव ने अपने सिर की एक जटा को उखाड़ा। उखाड़ते ही कालभैरव प्रकट हो गये और हाथ जोड़कर कहने लगे- “हे प्रभो! मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”
काशी में पाप करने वाले अनाचारी, दुराचारियों को डण्डे से मारकर काशी से बाहर निकालो। काशी की निन्दा करने वाले अभिमानियों का अभिमान चूर्ण कर उन्हें कठोर दण्ड दो। काशीवासियों के अज्ञान को मिटाकर उनमें ज्ञान भर दो। उन्हें वैराग्य दो। उन्हें ईश्वर की अडिग भक्ति प्रदान करो। हे कालभैरव ! काशी की रक्षा करो”।।
इस प्रकार कहने के पश्चात् विश्वनाथ जी कहते हैं कि हे भैरव! तुम काशी के अधिपति हो। यह काशी तुम्हारे ही अधीन रहेगी। विश्वनाथ जी कहते है। कि हे अन्नपूर्णे! तुम और हम दोनों काशीवास करेंगे। तुम सभी प्राणियों को अन देना, आवास देना, उन्हें (सन्मार्ग) ज्ञान, भक्ति, वैराग्य की ओर प्रेरित करना और मैं सभी प्राणियों को मुक्ति दूँगा। है अन्नपूर्णा हमारी काशीपुरी तीनों लोकों से श्रेष्ठ होगी। त्रैलोक्य में काशी जैसी पुरी नहीं होगी। काशी में जो व्यक्ति क्षणमात्र भी वास करेगा, उसको विशेष फल की प्राप्ति होगी।
काशी के दर्शन से जन्म-जन्मान्तर के पाप समाप्त हो जायेंगे। हे अन्नपूर्णे! हमारी काशीपुरी में मरने वाला प्राणी पुनः जन्म नहीं लेगा। काशी में शरीरत्याग करने वाले प्राणियों को सायुज्य प्राप्त होगा।
हे भवानी! मृत्युलोक में सबसे श्रेष्ठ मोक्ष-क्षेत्र मेरी काशीपुरी होगी। इसकी सबसे बड़ी विलक्षणता होगी कि मृतक को भी विवाहादि सामग्रियों से सजा करके ‘राम नाम सत्य है’ इस प्रकार गीत गाते हुए श्मशान तक ले जाया जाएगा। इससे अधिक आश्चर्य और क्या होगा? इस प्रकार भगवान् विश्वनाथ यहाँ काशी में सदा सर्वदा माँ अत्रपूर्णां के साथ स्थित हो गये। काशी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार का प्रमाण मिलता है।
काशीति च विदुर्वेदास्तत्र मुक्तिः प्रतिष्ठिता।
कृते त्रिशूलवज्ज्ञेयं त्रेतायां चक्रवत्तथा।।
द्वापरे तु रथाकारं शङ्खाकारं कलौ युगे।
वेदों में कहा गया है कि गङ्गा से देहलीविनायक तक तथा अस्सी और वरुणा के बीच में मुक्ति-भूमि स्थित है, जिसे ‘काशी’ कहते है। “काशी” सतयुग में त्रिशुल के आकार में, त्रेतायुग में चक्र के आकार में, द्वापरयुग में रथ के आकार में और कलियुग में शंख के आकार में रहती है। यहाँ समग्र मनोकामनाओं की प्राप्ति होती है।
अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पञ्चक्रोशपरीमितम्। ज्योतिर्लिंगं तदेकं हि ज्ञेयं विश्वेश्वराभिधम्।।
पंचकोस परिमाण जो अविमुक्त (काशी) नामक महाक्षेत्र है, उसे एकमात्र विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिलिंगस्वरूप मानना चाहिए। काशी चैतन्यरूप है। इसलिए प्रलय काल में भी काशी नष्ट नहीं होती।
हरः काशी हरः काशी काशी काशी हरो हरः।, शिवः काशी शिवः काशी काशी काशी शिवः शिवः ।।
शिव ही काशी हैं, शिव ही काशी हैं, काशी ही शिव है, काशी ही शिव है, अर्थात् काशी और शिव में कोई भेद नहीं है। यह काशी परमकल्याणकारक है।
कैलाशादधिका काशी सर्वदैव प्रकाशिका।, कैलाशे शङ्करोऽप्येकः काश्यां सर्वेऽपि शङ्कराः ।।
काशी, कैलाश (पर्वत) से अधिकरहती है एवं काशी में जितने शिवलिंग हैं, सब भगवान् शङ्कर के स्वरूप हैं। अस्तु काशी के कंकड़ भी शङ्कर माने जाते हैं।
सर्वे वर्णा आश्रमाश्च बालयौवनवार्द्धकाः।, अस्यां पुर्यां मृतश्वेत्स्युर्मुक्ता एव न संशयः।।
इस काशीपुरी में शरीरत्याग करने वाला चाहे वह किसी भी वर्णाश्रम का हो तथा किसी भी अवस्था (बाल, युवा, वृद्ध) का हो, मुक्त हो जाता है। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है।
काश्यां हि काशते काशी काशी सर्वप्रकाशिका, सा काशी विदिता येन तेन प्राप्ता हि काशिका।।
महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अँधेरी रात में कैलाश दिखाई नहीं पड़ता तथा कैलाश के शङ्कर भी एक ही है, किन्तु काशी सर्वदा प्रकाश करती
काशी में काशी प्रकाशित होती है, काशी सब कुछ प्रकाशित करने वाली है, काशी सर्वफलप्रदायिनी है, इस काशी को जिसने समझ लिया, उसे काशी प्राप्त हो गई। इसलिए भगवान् शङ्कर पार्वती जी से कहते हैं कि-
स्वर्गभूमिस्तु सा ज्ञेया मोक्षभूमिस्तु मध्यतः।, काश्याश्चतुर्दिशं देवी! योजनं स्वर्गभूमिका।।, मृतास्तत्र तु गच्छन्ति स्वर्ग सुकृतिनां पदम्।।
हे देवी, ऊपर स्वर्गभूमि है, मोक्ष-भूमि है और काशी के चारों ओर एक योजन पर्यन्त स्वर्गभूमि है। यहाँ मरने वाले पुण्यात्मा स्वर्ग पहुँचते हैं। मध्य में
आनन्दकानने ह्यत्र ज्वलद्दावानलो ऽस्म्यहम् । कर्मबीजानि जन्तूनां ज्वालये न प्ररोहये ।। यष्टव्यो ऽहं प्रयत्नतः। जेतव्यौ कलिकाली च रन्तव्या मुक्तिरङ्गना ।।
भगवान् शिव कहते हैं कि इस आनन्दकानन (काशी) में में धधकते हुए दावानल (वनाग्नि) के समान हूँ, अतः जीवों के कर्मबीजों को भस्मसात् करता रहता हूँ, उन्हें उगने ही नहीं देता हूँ। अतः भक्तों को काशी में निरन्तर ही निवास करना चाहिए तथा मेरी उपासना प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए। इसी से कलि और काल को जीतकर मुक्तिरूपा स्त्री के साथ विश्वर किया जा सकता है।